अमृत वचन डॉक्टर हेडगेवार
१
” शक्ति केवल सेना या शस्त्रों में नहीं होती,
बल्कि सेना का निर्माण जिस समाज से होता है ,
वह समाज जितना राष्ट्रप्रेमी ,
नीतिमान और चरित्रवान संपन्न होगा ,
उतनी मात्रा में वह शक्तिमान होगा। ।”
२
” हमारा धर्म तथा संस्कृति कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो ,
जब तक उनकी रक्षा के लिए हमारे पास आवश्यक शक्ति नहीं है ,
उनका कुछ भी महत्व नहीं। ।”
३
” हमारा विश्वास है कि भगवान हमारे साथ है।
हमारा काम किसी पर आक्रमण करना नहीं है ,
अपितु अपनी शक्ति और संगठन का है।
हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के लिए हमे यह पवित्र कार्य
करना चाहिए और अपनी उज्जवल संस्कृति की रक्षा कर
उसकी वृद्धि करनी चाहिए। तब ही आज की दुनिया में हमारा समाज टिक सकेगा। । “
४
” हम किसी पर आक्रमण करने नहीं चले हैं।
पर इस बात के लिए हमे सदैव सतर्क तथा सचेत रहना होगा ,
कि हम पर भी कोई आक्रमण न करे। ।”
५
” बोलते – चलते , आचार – व्यवहार करते , तथा प्रत्येक
कार्य करते समय हम सावधान रहे कि हमारी किसी भी
कृति के कारण संघ के ध्येय तथा कार्य को कोई क्षति न पंहुचे। ।”
६
” चरित्र निष्कलंक होने के कारण , अनजाने में भी हममें
यह दुर्भावना छू तक नहीं आनी चाहिए कि , हम कुछ विशेष हैं
तथा औरों से श्रेष्ठ हैं। किसी भी दशा में , स्वप्न में भी
ऐसा ना मालूम पड़े कि , हम अन्य लोगों से कहीं अच्छे हैं।
मुझे विश्वास है कि हममें , ऐसा अहंभाव रचने वाला कोई नहीं है।
किंतु यदि कोई ऐसा हो जो सोचता हो कि मैं बहुत कार्य कर रहा हूं
इसलिए औरों से कुछ श्रेष्ठ हूं , और इसी नाते दूसरों को नीचा
तथा तुच्छ दृष्टि से देखने का अधिकारी हूं , तो मैं उसे यह परामर्श दूंगा कि
वह ऐसे रिता अभिमान को सत्वर निकाल बाहर फेंके। । “
७
” निर्दोष कार्य करने हेतु , शुद्ध चरित्र के साथ – साथ
आकर्षकता और बुद्धिमता का मणिकांचन योग भी साधना चाहिए
सच्चरित्र , आकर्षकता और चातुर्य इन तीनों के त्रिवेणी संगम
से ही संघ का उत्कर्ष होता है। चरित्र के रहते हुए भी
चतुराई के अभाव में संघ कार्य हो नहीं सकता।
संघ कार्य सुचारू रूप से चलने के लिए हमें ,
लोक संग्रह के तत्वों को भली-भांति समझ लेना होगा। । “
८
” संघ केवल स्वयं सेवकों के लिए नहीं ,
संघ के बाहर जो लोग हैं , उनके लिए भी है।
हमारा यह कर्तव्य हो जाता है , कि उन लोगों को ,
हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताएं।
और यह मार्ग है , केवल संगठन का। । “
९ परम पूज्य श्री गुरु जी ने कहा –
” कार्य करते – करते कभी भ्रम हो जाता है कि ,
चारों ओर के कोलाहल में मेरी छीन वाणी कौन सुनेगा ?
यह धारणा व्यर्थ है , सब सुनेंगे और अवश्य सुनेंगे।
यदि मेरे शब्दों के पीछे त्याग और चरित्र है ,
तो लोग सिर झुका कर सुनेंगे।
यह आत्मविश्वास कार्यकर्ता में होना चाहिए। । “
१०
” सारा हिंदू समाज हमारा कार्यक्षेत्र है ,
हम सभी हिंदुओं को अपनावे।
अपनी निजी मान – अपमान की शुद्र भावनाओं को
त्याग कर हमें प्रेम तथा नम्रता के साथ
अपने समाज को सब भाइयों के पास पहुंचाना होगा
कौन सा पत्थर हृदय हिंदू है ,जो तुम्हारे
मृदुता तथा नम्रता पूर्ण शब्दों को सुनना इंकार कर देगा। । “
११
” हिंदुस्तान पर प्रेम करने वाले हर एक हिंदू से
हमारा व्यवहार भाई जैसा ही होना चाहिए
लोग कैसा व्यवहार करते हैं , और क्या बोलते हैं
इसका कोई महत्व नहीं है , हमारा बर्ताव
अगर आदर्श हो तो , हमारे सारे हिंदू भाई
हमारी और ठीक रूप से आकर्षित होंगे। । “
१२
” हमारा कार्य अखिल हिंदू समाज के लिए
होने के कारण उसके किसी भी अंग की उपेक्षा
करने से काम नहीं चलेगा। सभी हिंदू भाइयों के साथ
फिर वह किसी भी उच्च या नीच श्रेणी के समझे जाते हो
हमारा बर्ताव हर एक से प्रेम का होना चाहिए
किसी भी हिंदू भाई को नीच समझ कर उसे दुत्कारना पाप है। । “
१३
वयोवृद्ध लोगों को तो संघ कार्य में काफी महत्व का स्थान है
वे संघ में महत्वपूर्ण कार्य का दायित्व उठा सकते हैं
यदि प्रौढ़ लोग अपनी प्रतिष्ठा तथा व्यवहार कुशलता का
उपयोग संघ कार्य के हेतु करें तो , युवकजन अधिकाधिक
उत्साह से कार्य कर सकेंगे। बड़ों के मार्गदर्शन से
युवकों की शक्ति कई गुना बढ़ती है। और तब संघ कार्य अपने
निश्चित ध्येय कि और द्रुतगति से बढ़ता चला जाता है।
इसलिए किसी भी संघ के प्रति उदासीनता नहीं रखनी चाहिए
प्रत्येक को उत्साह तथा हिम्मत से आगे आना चाहिए कार्य में जुट जाना चाहिए। ।”
१४
” यदि आप कहेंगे कि हम तो अलग रहेंगे खड़े देखते रहेंगे
तो उससे कुछ लाभ नहीं , यह संघ तो सब हिंदुओं का है
तब फिर सब हिंदुओं को इसमें सम्मिलित हो जाना चाहिए। । “
१५
” यदि आप स्वयं को संघ का कार्यकर्ता समझते हैं
तो पहले आपको सोचना होगा कि,
आप हर दिन और हर माह कौन से कार्य कर रहे हैं।
अपने किए हुए कार्य की , आपको सदैव जांच-पड़ताल करते रहना चाहिए।
केवल हम संघ के स्वयंसेवक हैं , और इतने वर्ष में संघ ने ऐसा कार्य किया है ,
इसी बात में आनंद तथा अभिमान मानते हुए , आलस्य में दिन काटना ,
गिरा पागलपन ही नहीं , अपितु कार्यनासक भी है। “
१६
” आप यह अच्छी तरह याद रखें कि ,
हमारा निश्चय और स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगति का मूल कारण है।
संघ के आरंभ से हम , हमारी भावनाएं ध्येय से ,
समरस हो गई है , हम कार्य से एक रूप हो गए हैं। “
१७
” हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए कि
जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है
और जो उद्देश्य हमारे सामने है , उसे प्राप्त करने के लिए
हम कितना काम कर रहे हैं।
जिस गति से तथा जिस प्रमाण से हम अपने कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं ,
क्या वह गति या प्रमाण हमारी कार्य सिद्धि के लिए पर्याप्त है ? “
१८
” प्रत्येक अधिकारी तथा शिक्षक को सोचना चाहिए कि
उसका बर्ताव कैसा रहे और स्वयंसेवकों को कैसे तैयार किया जाए
स्वयंसेवकों को पूर्णता संगठन के साथ एकरूप बनाकर उनमें से
प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए कि मैं स्वयं ही संग हूं
प्रत्येक व्यक्ति की आंखों के सामने का एक ही तारा सदा जगमगाता रहे
उस पर उसकी दृष्टि तथा मन पूर्णता केंद्रित हो जाए। “
१९
” हमें अपने नित्य के व्यवहार भी ध्येय पर दृष्टि रखकर ही करने चाहिए
प्रत्येक को अपना चरित्र कैसा रहे इसका विचार करना चाहिए
अपने चरित्र में किसी भी प्रकार की त्रुटि ना रहे। “
२०
” किसी भी आंदोलन में साधारण जनता
कार्यकर्ता के कार्य का इतना ख्याल नहीं करती
जितना कि उसके व्यक्तिगत चरित्र ढूंढने से भी
दोष या कलंक के छींटे तक ना मिले। “
२१
आप इस भ्रम में ना रहे कि , लोग हमारी और नहीं देखते
वह हमारे कार्य तथा हमारी व्यक्तिगत आचरण की और
आलोचनात्मक दृष्टि से देखा करते हैं।
इसीलिए केवल व्यक्तिगत चाल चलन की दृष्टि से
सावधानी बरतने से काम नहीं चलेगा।
अभी से सामूहिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी ,
हमारा व्यवहार हमें उदात्त रखना होगा। “
२२
” अगर मैं तो आपसे केवल यही कहना चाहता हूं कि
भविष्य के विषय में किसी तरह का संदेह ना रखते हुए
आप नियमित रूप से शाखा में आया करें।
संघ कार्य के प्रत्येक विभाग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर
उनमें निपुण बनने का प्रयास करें।
बिना किसी व्यक्तियों की सहायता लिए ,
स्वतंत्र रीति से एक – दो संघ शाखाएं चला
सकने की क्षमता प्राप्त करें। । “
२३
” यह खूब समझ लो कि बिना कष्ट उठाए
और बिना स्वार्थ त्याग किए हमें कुछ भी फल मिलना
असंभव है। मैंने स्वार्थ त्याग शब्द और उपयोग किया है
परंतु उनमें जो कार्य करना है , वह हमारी हिंदू जाति के
स्वार्थ पूर्ति के लिए है। अतः उसी में हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ
भी अनारभूत है। फिर हमारे लिए भला दूसरा कौन सा स्वार्थ बचता है
यदि इस प्रकार यह कार्य हमारे स्वार्थ का ही है ,
तो फिर उसके लिए हमें जो भी कष्ट उठाने पड़ेंगे
उसे हम स्वार्थ त्याग कैसे कह कैसे कह सकेंगे ?
वास्तव में यह स्वार्थ त्याग हो ही नहीं सकता।
हमें केवल अपने स्व का अर्थ विशाल करना है।
अपने स्वार्थ को हिंदू राष्ट्र के स्वार्थ से हम एक रूप कर दें। । “
२४
” संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं
संघ के बाहर जो लोग हैं उनके लिए भी है
हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि
उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का
सच्चा मार्ग बताएं और यह मार्ग है केवल संगठन का। । “
२५
” कच्ची नींव पर खड़ी की गई इमारत
प्रारंभ से भले ही सुंदर या सुघड़
प्रतीत होती होगी , परंतु बवंडर के पहले ही
झोंके के साथ , वह भूमिसात हुए बिना
खड़ी करना हो उतनी ही उसकी नींव
विस्तृत और ठोस होनी चाहिए। । “
२६
” राष्ट्र रक्षा समं पुण्य
राष्ट्र रक्षा समं व्रतम
राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो
दृष्टि नैव च नैव च।”
भावार्थ – राष्ट्र रक्षा के समान कोई पुण्य नहीं , राष्ट्र रक्षा के समान कोई व्रत नहीं , राष्ट्रीय रक्षा के सामान को यज्ञ नहीं आता राष्ट्र रक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए।
२७
” आसेतू – हिमाचल , अखिल भारतवर्ष हमारी कार्य भूमि है।
हमारा दृष्टिकोण विशाल होना चाहिए।
हमें ऐसा लगना चाहिए कि समूचे भारतवर्ष हमारा घर है।
हम किस सीमा तक और कौन सा कार्य कर सकते हैं।
यह पहले निश्चित कर उसके अनुसार हम
अपने जीवन का आयोजन करें और
प्रतिज्ञा पूर्वक उस कार्य को पूरा करके ही रहे। । “
२८
” मेरी अटल श्रद्धा हो गई है कि ,
हम पर भगवान की कृपा सदा बनी रहे
और आगे भी बनी रहेगी
क्योंकि भगवान हमारे हृदय के भावों को
ठीक-ठीक जानते हैं हमारा
हृदय पवित्र और शुद्ध है
हमारे मन में पाप का लेस भी नहीं है। ।”
२९
” अपने समाज में संगठन निर्माण कर
उसे बलवान तथा अजेय बनाने के अतिरिक्त
हमें और कुछ नहीं करना है। इतना कर देने पर
सारा काम आप ही आप बन जाएगा।
हमें आज सताने वाली सारी
राजनैतिक , सामाजिक और आर्थिक
समस्याएं आसानी से हल हो जाएगी। । “
३०
” हममें रात दिन केवल इसी बात का विचार बना रहे
कि हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण इस पवित्र कार्य के लिए
किस प्रकार खर्च हो सकेगा , साथ ही साथ हमें अपने
विचारों के अनुरूप आचरण करना भी सीखना चाहिए
हमें सतत इसी बात की लगन लगी रहनी चाहिए कि
हमारा संगठन प्रतिक्षण किस प्रकार बढे । । “
३१
” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खूब सोच समझ कर
अपना कार्य क्षेत्र निर्धारित किया है
और इसलिए वह अन्य किसी कार्य के
झमेले में नहीं पड़ना चाहता है।
यह पर दृष्टि रखते हुए हमें
अपने निश्चित मार्ग पर अग्रसर होना है। । ”
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