महाभारत के पात्र शांतनु और गंगा की अद्भुत कहानी
शांतनु पूर्व जन्म में ” महाभिषक “ थे और गंगा ब्रह्मा पुत्री। देव सिद्ध होकर माभिषक देवलोक में गए थे। इस ( द्वापर ) युग में वह शांतनु के रूप में हस्तिनापुर के राजा थे , जो कौरव और पांडव के परदादा कहलाए। महाभिषक , इंद्र के परम मित्र हुआ करते थे। एक दिन की बात है सभा का आयोजन हुआ था। नृत्य , रास – रंग आदि का माहौल था सभी देवता सभा मौजूद थे , वहां ब्रह्मा जी भी मौजूद थे। महाभिषक और गंगा एक दूसरे के सामने बैठे हुए थे और दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित व आशक्ति रूप से एकटक देख रहे थे। एक क्षण हवा का तेज झोंका आया और गंगा के शरीर से आंचल गिर गया। इस पर देव नियम के अनुसार सभी देवता अपनी नजरें नीचे कर लेते हैं , सिर झुका लिया किन्तु महाभिषक और गंगा एक दूसरे को एकटक देखते रहे।इस प्रक्रिया दोनों में लीन थे , जिसके कारण उन्होंने देव नियम का पालन नहीं किया। इस पर ब्रह्माजी क्रोधित हुए और महाभिषक और देवी गंगा को मृत्यु लोक में जन्म लेने का श्राप दिया। जो महाभिषक शांतनु के नाम से जाने गए और गंगा , देवी गंगा के नाम से।
मृत्युलोक में शांतनु और देवी गंगा का मिलन –
एक समय की बात है हस्तिनापुर के महाराजा शांतनु शिकार करते हुए गंगा के घाट पर पहुंचे। वहां उन्हें एक सुंदर कन्या दिखी , शांतनु उसके सौंदर्य और रूप पर मोहित हो गए। शांतनु ने उस सुंदर स्त्री से प्रणय निवेदन ( विवाह प्रस्ताव ) किया। उस स्त्री ने विवाह को स्वीकार किया किंतु उनके सामने एक शर्त भी रखी। वह शर्त यह थी कि वह कभी भी प्रश्न नहीं पूछेंगे , उसके अतीत उसके वर्तमान आदि को वह कभी जानने का प्रयास नहीं करेंगे। जिस दिन वह प्रश्न करेंगे वह उनको त्याग देगी। वह सुंदर स्त्री स्वयं देवी गंगा थी।
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गंगा द्वारा वशु के सात पुत्रो का उद्धार –
शांतनु और गंगा का विवाह होता है दोनों सुखपूर्वक हस्तिनापुर में रहते हैं। देवी गंगा ने एक-एक करके सात पुत्रों को जन्म दिया। किंतु देवी गंगा ने सभी पुत्रों को एक-एक करके जन्म के उपरांत गंगा नदी में प्रवाह कर दिया। इसके कारण हस्तिनापुर कभी भी अपने राजकुमारों के जन्म का उत्सव नहीं मना पाई। स्वयं महाराज शांतनु भी वचन के कारण कोई प्रश्न करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। उनका हृदय अंदर ही अंदर व्यथित / दुखी था। इसी क्रम में देवी गंगा ने आठवें पुत्र को जन्म दिया। गंगा जब वह आठवे पुत्र को लेकर गंगा में प्रवाह करने के लिए प्रस्तुत हुई , महाराज शांतनु ने गंगा को रोका और उन्हें ऐसा करने से रोका। देवी गंगा ने अपने प्रश्न को याद दिलाया , महाराज शांतनु बोले के जो तुम्हें वचन दिया था वह एक चक्रवर्ती राजा था , और आज आठवां पुत्र का पीता हूं।
गंगा ने उन्हें पूर्व जन्म और सातों पुत्रों के उद्धार की कथा कही। सारा राज बताया कि यह सातों पुत्र वशु के पुत्र थे , जो ऋषि वशिष्ठ जी के श्राप के कारण मृत्यु लोक में जन्म लिया था। वशिष्ठ जी के श्राप से मुक्ति पाने के लिए वसु जी के पुत्रों ने गंगा से आग्रह किया था , कि वह मृत्यु लोक में उनकी माता बने और उद्धार करें। उन्होंने पूर्व जन्म की सारी बातें महाराज शांतनु को बता दी और स्वयं वहां से आठवें पुत्र को लेकर चली गई।
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देवव्रत – शांतनु का मिलन ( हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी ) –
इस घटना के 16 सोलह वर्ष हो गए थे। महाराज शांतनु नदी के किनारे भ्रमण कर रहे थे। शांतनु देखा एक बालक गंगा की तेज धारा को अपने वाणों के द्वारा रोके हुए है। इस कृत्य को देखकर उन्हें जिज्ञासा हुई , उन्होंने दंड देने के लिए अपने धनुष – बाण तैयार कर आगे बढे। शांतनु आगे बढे ही थे कि गंगा प्रकट हुई और महाराज शांतनु को देवव्रत से परिचय कराया।देवव्रत आपका वही आठवां पुत्र है जिसे लेकर में गई थी ।देवी गंगा ने हस्तिनापुर को एक राजकुमार दे दिया। गंगा ने बताया कि हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी / राजकुमार में जो गुण होने चाहिए वह सब महान गुरुवो से दिलवाया है।
देवव्रत के गुरु अथवा शिक्षा –
गुरु वशिष्ट से वेद और वेदांत की शिक्षा दिलवाई। गुरु बृहस्पति से राजनीति की शिक्षा। गुरु भार्गव जी से तीर चलाने व धनुर्विद्या के शिक्षा दिलाई। गुरु परशुराम , गुरु शुक्राचार्य आदि से अन्य शिक्षा।
शांतनु – देवव्रत को लेकर हस्तिनापुर लौट गए जहां महाराज और युवराज का भव्य स्वागत किया गया। हस्तिनापुर को एक राजकुमार मिल गया है , चारों तरफ खुशियां बिखर जाती है हस्तिनापुर की खुशियां दोगुनी हो जाती है।
देवव्रत अपने गुरुओं से मिले शिक्षा का संक्षिप्त विवरण देते हैं उन्हें –
गुरु वशिष्ट से यह शिक्षा मिलती है – ” विद्या से विनय मिलता है , विनय से पात्रता अर्थात योग्यता मिलती है ,पात्रता से धन मिलता है , धन से धर्म के कार्य होते हैं , धर्म कार्य से सुख की प्राप्ति होती है। “
गुरु वशिष्ठ का मूल मन्त्र मिला – ” हंस के पास दो पंख होते हैं , ‘ ज्ञान ‘ दूसरा ‘ कर्म ‘ , किसी एक के अभाव में हंस नहीं उड़ सकता।”
गुरु वृहस्पति से उन्हें शिक्षा मिली – ” कार्य का आरंभ करो तो उसका अंत करके ही विश्राम करो , अन्यथा कार्य ही तुम्हारा अंत कर देगा। “
शुक्रनीति से यह शिक्षा मिली – ” कार्य का परिणाम ही यह बता सकता है , कि यह कार्य शुभ हुआ या अशुभ गुरु। “
परशुराम से यह शिक्षा मिलती है – ” पिता की आज्ञा ही सर्वोपरि है , और वह ही आनंद की सीढ़ी है। “
परशुराम ने माता के लिए जो शिक्षा दी वह इस प्रकार है – ” शिक्षक से आचार्य का अधिकार 10 गुना है , पिता का अधिकार आचार्य से 100 गुना है , परंतु माता का अधिकार पिता के अधिकार से 10,00,000 गुना अधिक है। ऐसा इसलिए क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है , किंतु माता कुमाता नहीं होती। “
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